रविवार, 26 दिसंबर 2010
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
जिंदगी और समय .....
जिंदगी और समय
-------------------
उससे
लड़ना ...
झगड़ना ...
रूठना ...
चाहे मत मनाना ...
बस ...
कभी अलविदा मत कहना ...
उसने कभी मुड कर नहीं देखा ...
पलट कर देखना उसे आता नहीं ....
रुक जाना उसके वश में नहीं ....
क्या है वह ....!
जिंदगी या समय ...!
रुठते उससे कैसे भला
---------------------
किसी बात से खफा नहीं होना
बस मुस्कुरा देना
आदत मेरी कभी नहीं थी ....
रुठते मगर उससे कैसे भला
मनाना जिसकी आदत ही नहीं ...
.......................................................................
चित्र गूगल से साभार ..
-------------------
उससे
लड़ना ...
झगड़ना ...
रूठना ...
चाहे मत मनाना ...
बस ...
कभी अलविदा मत कहना ...
उसने कभी मुड कर नहीं देखा ...
पलट कर देखना उसे आता नहीं ....
रुक जाना उसके वश में नहीं ....
क्या है वह ....!
जिंदगी या समय ...!
रुठते उससे कैसे भला
---------------------
किसी बात से खफा नहीं होना
बस मुस्कुरा देना
आदत मेरी कभी नहीं थी ....
रुठते मगर उससे कैसे भला
मनाना जिसकी आदत ही नहीं ...
.......................................................................
चित्र गूगल से साभार ..
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
काँधे मेरे तेरी बन्दूक के लिए नहीं है .....
मैं
नादान
नाजुक
कमजोर
हताश
मायूस
तुम्हे लगती रहू
मगर
याद रख
कांधे मेरे
तेरी बन्दूक के लिए नहीं है ....
छोटे हाथ मेरे
नाजुक अंगुलियाँ
भले होंगी मेरी
भार उठाएंगी
खुद इनका
जरुरत हुई तो ....
जीतना मैं भी चाहूं
तू भी
बस जुदा है
रास्ता तेरा - मेरा
जीतना चाहती हूँ मैं
सम्मान से सम्मान को
प्रेम से प्रेम को .....
जीत स्थायी वही होती है
जो
मिले
दिलों को जीत कर
युद्ध शांति का पर्याय कभी नहीं होता
देख ले
इतिहास के पन्ने पलट कर
आखिर महाभारत से किसने क्या पाया
क्या सच ही....
शांति ....??
कलिंग जीत कर भी
अशोक क्यों चला
शांति की ओर
लाशों के ढेर
कभी आपको नहीं दे सकते
सम्मान ,शांति और प्रेम ...
सिर्फ दे सकते है
घिन
वितृष्णा
नफरत ...
और घबरा कर जो बढ़ेंगे कदम
तो तय करेंगे
राह
सिर्फ
प्रेम और शांति की ही ...
रविवार, 21 नवंबर 2010
ना ...अब और ना बचपना !
ना अब बचपना
अब बचपन ना
बहुत हुआ बचपन पर हँसना
अब हँसना ना
अब हँस ना ......!!
बचपन कब चाहे बड़ा होना
मगर जब बड़ा होना
तो बड़ा हो ना ......!!
बचपन से बड़प्पन का सफ़र...
पलक नम सुस्त कदम
बुझी निगाह सांस कम
यही तो है बड़ा होना
तो अब बड़ा ही होना
अब बड़ा हो ना ......!!
चाहा यही तो
बचपन से बड़प्पन का सफ़र
सीखे चुप रहना
तो अब चुप है ना
चाहे मौन रखना
तो अब मौन रख ना ......!!
बस अब और ना बचपना
अब बचपन ना .....!!
अब बचपन ना
बहुत हुआ बचपन पर हँसना
अब हँसना ना
अब हँस ना ......!!
बचपन कब चाहे बड़ा होना
मगर जब बड़ा होना
तो बड़ा हो ना ......!!
बचपन से बड़प्पन का सफ़र...
पलक नम सुस्त कदम
बुझी निगाह सांस कम
यही तो है बड़ा होना
तो अब बड़ा ही होना
अब बड़ा हो ना ......!!
चाहा यही तो
बचपन से बड़प्पन का सफ़र
सीखे चुप रहना
तो अब चुप है ना
चाहे मौन रखना
तो अब मौन रख ना ......!!
बस अब और ना बचपना
अब बचपन ना .....!!
पुरानी कविता (?)
पुनः प्रकाशित ....
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शनिवार, 6 नवंबर 2010
दर पर उसकी भी आया मगर देर से बहुत ......
तलाश -ए -सुकूँ में भटका किया दर -बदर
दर पर उसके भी आया मगर देर से बहुत .....
जागा किया तमाम शब् जिस के इन्तजार में
नींद से जागा वो भी मगर देर से बहुत .....
शमा तब तक जल कर पिघल चुकी थी
जलने तो आया परवाना मगर देर से बहुत ....
तिश्नगी उन पलकों पर ही जा ठहरी थी
पीने पिलाने को यूँ तो थे मयखाने बहुत ....
जलवा- ए- महताब के ही क्यों दीवाने हुए
रौशनी बिखेरते आसमान में तारे तो थे बहुत ...
नम आंखों से भी वो मुस्कुराता ही रहा
रुलाने को यूँ तो थे उसके बहाने बहुत ....
जिक्र उसका आया तो जुबां खामोश रह गयी
सुनाने को जिसके थे अफसाने बहुत ......
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बुधवार, 20 अक्तूबर 2010
शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010
मौन- प्रेम
दिव्याजी के ब्लॉग पर प्रेम की मर्यादा पर अच्छी बहस हुई .....इसी विमर्श पर मुझे अपनी डायरी में नोट की गयी एक पुरानी कविता याद आ गयी ...चारू मेहरोत्रा की लिखी यह कविता किसी पत्रिका से नोट की थी ...पत्रिका का नाम अब स्मरण नहीं है ....
प्रेम को अभिव्यक्त होने से रोका जा सकता है ...होने से नहीं ...
सात्विक प्रेम मर्यादित ही होता है ... मर्यादाएं और सामाजिक परम्पराएँ समाज की भलाई के लिए हैं ...यदि ये नहीं हों तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाए ...
प्रेम को अभिव्यक्त होने से रोका जा सकता है ...होने से नहीं ...
सात्विक प्रेम मर्यादित ही होता है ... मर्यादाएं और सामाजिक परम्पराएँ समाज की भलाई के लिए हैं ...यदि ये नहीं हों तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रह जाए ...
मौन प्रेम
है एक अनोखी अनुभूति
पर्वत -सा शांत
स्वर्ग -सा एकांत
जैसे दूर कही जमीं पर मिलता आसमान
फूलों -सा मुस्काता
भौंरों -सा गुनगुनाता
जैसे कोई अबोध बालक हो घबराता
नदी -सा चंचल
गोरी का आँचल
जैसे चुपके से कोई मुझे बुलाता
है मेरे भी मन में
तुम्हारे प्रति
सबसे छुपा -सा
जैसे अटूट बंधन- सा
एक अनोखी अनुभूति- सा
मौन -प्रेम ....
-चारू मेहरोत्रा
है एक अनोखी अनुभूति
पर्वत -सा शांत
स्वर्ग -सा एकांत
जैसे दूर कही जमीं पर मिलता आसमान
फूलों -सा मुस्काता
भौंरों -सा गुनगुनाता
जैसे कोई अबोध बालक हो घबराता
नदी -सा चंचल
गोरी का आँचल
जैसे चुपके से कोई मुझे बुलाता
है मेरे भी मन में
तुम्हारे प्रति
सबसे छुपा -सा
जैसे अटूट बंधन- सा
एक अनोखी अनुभूति- सा
मौन -प्रेम ....
-चारू मेहरोत्रा
लेबल:
कविता,
चारू मेहरोत्रा,
मौन प्रेम,
संकलित,
poem
सोमवार, 11 अक्तूबर 2010
बस ... मुझसे मेरा हाल ना पूछा ...!!
धरा घूमती है सूर्य के चारो ओर
और अपने अक्ष पर भी
तभी तो मौसम बदलते हैं
दिन- रात होते हैं ...
गुलाबी सर्दियों की गुनगुनी दोपहर
तपती गर्मियों की शीतल शामें
मिट्टी की गंध सावन की फुहारें
बौराया फागुन में महका महुवा
धरती पर इतने मौसम
सिर्फ इसलिए ही संभव है कि
घूमती है धरा अपने अक्ष पर भी
और सूर्य के चारों ओर भी ...
उसकी परिधि से खिंची गयी
समानांतर रेखा सीधी जाती है
ध्रुवतारे के पास ...
ध्रुवतारा जो अडिग अटल है अपनी जगह
उत्तर दिशा में
सभी तारों से अलग
जो घूमते है इसके चारो ओर
चट्टान से उसकी स्थिरता ही
बनाती है उसे सबसे चमकदार
बंधा है वह भी सृष्टि के नियमों से
उस समानांतर रेखा से
जो धरा के दोनों छोरों के मध्य से
सीधी उसके पास आती है....
धरा पर प्रतिपल बदलते
खुशगवार मौसम
के लिए जरुरी है
ध्रुवतारे का स्थिर होना ...
बादलों में छिपा हो
घडी भर को
कि दिख रहा हो निर्बाध
खुले आसमान में
होता ध्रुवतारा अपनी जगह
अटल अडिग स्थिर
उत्तर दिशा में ही
धरा का यह विश्वास
तभी तो
आसमान में छाई घटायें घनघोर हो
मेघ-गर्जन के साथ डराती बिजलियाँ हो
धरा अपने अक्ष पर भी घूमती है
और सूर्य के चारों और भी
कभी शांत -चित्त , कभी लरजती
मगर रुकता नहीं चक्र
धरा के मौसम का
पतझड़ सावन वसंत बहार
दिन और रात का ...
क्योंकि
धरा को है विश्वास
उसकी परिधि की समानांतर रेखा
सीधी जाती है ध्रुवतारे के पास ....
धरा पर हर पल बदलते
खुशगवार मौसम के लिए
जरुरी है
ध्रुवतारे की स्थिरता !
और अपने अक्ष पर भी
तभी तो मौसम बदलते हैं
दिन- रात होते हैं ...
गुलाबी सर्दियों की गुनगुनी दोपहर
तपती गर्मियों की शीतल शामें
मिट्टी की गंध सावन की फुहारें
बौराया फागुन में महका महुवा
धरती पर इतने मौसम
सिर्फ इसलिए ही संभव है कि
घूमती है धरा अपने अक्ष पर भी
और सूर्य के चारों ओर भी ...
उसकी परिधि से खिंची गयी
समानांतर रेखा सीधी जाती है
ध्रुवतारे के पास ...
ध्रुवतारा जो अडिग अटल है अपनी जगह
उत्तर दिशा में
सभी तारों से अलग
जो घूमते है इसके चारो ओर
चट्टान से उसकी स्थिरता ही
बनाती है उसे सबसे चमकदार
बंधा है वह भी सृष्टि के नियमों से
उस समानांतर रेखा से
जो धरा के दोनों छोरों के मध्य से
सीधी उसके पास आती है....
धरा पर प्रतिपल बदलते
खुशगवार मौसम
के लिए जरुरी है
ध्रुवतारे का स्थिर होना ...
बादलों में छिपा हो
घडी भर को
कि दिख रहा हो निर्बाध
खुले आसमान में
होता ध्रुवतारा अपनी जगह
अटल अडिग स्थिर
उत्तर दिशा में ही
धरा का यह विश्वास
तभी तो
आसमान में छाई घटायें घनघोर हो
मेघ-गर्जन के साथ डराती बिजलियाँ हो
धरा अपने अक्ष पर भी घूमती है
और सूर्य के चारों और भी
कभी शांत -चित्त , कभी लरजती
मगर रुकता नहीं चक्र
धरा के मौसम का
पतझड़ सावन वसंत बहार
दिन और रात का ...
क्योंकि
धरा को है विश्वास
उसकी परिधि की समानांतर रेखा
सीधी जाती है ध्रुवतारे के पास ....
धरा पर हर पल बदलते
खुशगवार मौसम के लिए
जरुरी है
ध्रुवतारे की स्थिरता !
शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010
बता मेरे मन ...क्या देखूं , क्या ना देखूं ...
मन ...हमारी हर कामना या गतिविधि का कारण हमारा मन ही है जो कभी दिल ...कभी दिमाग से संचालित होता है ...और कई बार दिल और दिमाग की रस्साकसी में इस बेचारे मन का कचूमर बन जाता है ....
कितना अच्छा हो यदि कभी हम अपने आपको अपने मन से अलग कर के देख पाए ...सोच कर ही अव्यक्त सी ख़ुशी मिल रही है ....मन बीच में खड़ा है किसी इंसान की तरह ...और उसे हम कभी दिमाग ...कभी दिल से देखते हो बारी- बारी ....यदि मन से अलग हुआ जा सके तो दुष्ट याददाश्त से पीछा भी छूट जाए ....मगर दुःख मिटने के साथ मन से जुडी सारी खुशियाँ भी चली गयी तो ......!!
तू बता मेरे मन क्या देखूं क्या ना देखूं ...........
कितना अच्छा हो यदि कभी हम अपने आपको अपने मन से अलग कर के देख पाए ...सोच कर ही अव्यक्त सी ख़ुशी मिल रही है ....मन बीच में खड़ा है किसी इंसान की तरह ...और उसे हम कभी दिमाग ...कभी दिल से देखते हो बारी- बारी ....यदि मन से अलग हुआ जा सके तो दुष्ट याददाश्त से पीछा भी छूट जाए ....मगर दुःख मिटने के साथ मन से जुडी सारी खुशियाँ भी चली गयी तो ......!!
तू बता मेरे मन क्या देखूं क्या ना देखूं ...........
चल मेरे मन कुछ दिन तुझे तुझसे अलग होकर भी देखू
टूटे ना दिल किसी का ये जतन कर के भी देखूं
बस्ती फूँक दी किसी ने घर जलते रहे चिताओं सेगली के आखिरी छोर पर अपना मकान देखूं
किसी मासूम के हाथ से छीन कर ले गया निवाला श्वान
छप्पन भोगों से सजी थाली किसी मंदिर में देखूं
ममता भर -भर उड़ेली जिस किसी भी अपने पर
हाथ उठा उसका पकड़ने को अपना गिरेबान देखूं
नफरतों की आंधियों में अडिग रहा मस्तूल देखूं
मुहब्बत में हुआ बर्बाद, अजब जहाँ का दस्तूर देखूं
रोकर आँख सुजाई जिसने, गले उसे लगाकर देखूं
खिलखिलाता जो बचपन था, उसे परे हटाकर देखूं
तू बता मेरे मन क्या देखूं क्या ना देखूं...
टूटे ना दिल किसी का ये जतन कर के भी देखूं
बस्ती फूँक दी किसी ने घर जलते रहे चिताओं सेगली के आखिरी छोर पर अपना मकान देखूं
किसी मासूम के हाथ से छीन कर ले गया निवाला श्वान
छप्पन भोगों से सजी थाली किसी मंदिर में देखूं
ममता भर -भर उड़ेली जिस किसी भी अपने पर
हाथ उठा उसका पकड़ने को अपना गिरेबान देखूं
नफरतों की आंधियों में अडिग रहा मस्तूल देखूं
मुहब्बत में हुआ बर्बाद, अजब जहाँ का दस्तूर देखूं
रोकर आँख सुजाई जिसने, गले उसे लगाकर देखूं
खिलखिलाता जो बचपन था, उसे परे हटाकर देखूं
तू बता मेरे मन क्या देखूं क्या ना देखूं...
चित्र गूगल से साभार
मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010
आखिर कविता क्या है ...
कई बार कोई नयी कविता लिखने पर साथी ब्लॉगर में से किसी का सवाल आता है .. ये कैसे लिखी!!
कभी कभी तो कोई चुटकी लेते हुए यह भी कह देता है कि क्या बात है!, बड़ी गहरी कवितायेँ लिखी जा रही हैं .....
सच कहूँ तो मैं आज तक समझ नहीं पायी कि मैं कविता कैसे लिखती हूँ .... कैसे शब्द जुड़ते हैं , कैसे विचार आते हैं ...कई बार हैरान हुई हूँ मैं कि मैंने ये लिखा कैसे ...जो मैं लिखती हूँ वह साहित्यिक दृष्टि से कविता है भी या नहीं... ये भी पता नहीं ...बस मैं इतना ही जानती हूँ कि जो विचार दिमाग में इकट्ठा होते हैं , बिना लाग लपेट उन्हें शब्दों में ढालने की कोशिश करती हूँ ,
कई बार दिमाग में चल रहे सवाल , जाने कहाँ कब सा अटका हुआ कोई शब्द , कही पढ़ी हुई कोई तहरीर , कोई वाकया या कोई काल्पनिक परिस्थिति में कोई पात्र कैसा महसूस करता होगा ...यही सब कुछ तो लिख जाता है ...उतर आते हैं शब्दों में और एक कविता बन जाती है ...ये अनायास लिखी जाने वाली कविताओं का आकलन है ...जो सायास लिखा जाता है वहां हर शब्द तौल कर , सोच कर लिखा जाता है ...और सोचने , समझने से तो अपना छत्तीस का आंकड़ा है ...
मन किया कि जरा कवियों की नजर से ही जान लिया जाए कि आखिर कविता क्या है ...कैसे लिखी जाती है ...मेरे साथ आप लोंग भी पढ़ लीजिये ....
कविवर पन्त के शब्दों में ...
"वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान, उमड़ कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान.."
कहा जाता है कि कवि समाज में खुद को स्थापित करने के लिए तुष्टिकरण के संवेग में कविता लिखता है ..समाज की भाषा में खुद को स्थापित करने की कोशिश करता है..और निरंतर करता रहता है . ...
प्रभाकर माचवे जी ने कहा है कविता के बारे में ...
कविता क्या है? कहते हैं जीवन का दर्शन है - आलोचन,
(वह कूड़ा जो ढँक देता है बचे-खुचे पत्रों में के स्थल)।
कविता क्या है ? स्वप्न श्वास है उन्गन कोमल,
(जो न समझ में आता कवि के भी ऐसा है वह मूरखपन)
कविता क्या है ? आदिम-कवि की दृग-झारी से बरसा वारी-
(वे पंक्तियाँ जो कि गद्य हैं कहला सकती नहीं बिचारी) !
हेमन्ती सन्ध्या है, सूरज जल्दी ही डूबा जाता है-
मन भी आज अकारज चिर-प्रवास से क्यों ऊबा जाता है ?
फ़सल कट गयी, कहीं गडरिया बचे-खुचे पशु हाँक रहा है,
सान्ध्य-क्षितिज पर कोई अंजन, म्लान-गूढ़ छवि आँक रहा है ।
बचे-खुचे पंछी भी लौटे, घर का मोह अजब बलमय है,
मानव से प्रकृति की छलना, प्रकृति से मानव छलमय है !
फुरसतिया जी ने कहा है कविता के लिए देखिये यहाँ
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बहुत विस्तार से लिखा है ...." कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है और ऐसे ऐसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है जिनके द्वारा यह लोक देवलोक और मनुष्य देवता हो सकताहै।"
कुमार अम्बुज कहते हैं ..." केवल भाषा से, शब्दों भर से कविता संभव नहीं होगी। वह कुछ और चमत्कृत कर सकनेवाली चीज हो तो सकती है मगर कविता नहीं। जहाँ तक कविता में लोकशब्दों की आवाजाही का प्रश्न है तो यह शब्द-प्रवेश अपनी परंपरा, बोध और सहज आकस्मिकता की वजह से होगा ही। "कवि की अपनी पृष्ठभूमि और उसके जनपदीय सांस्कृतिक जुड़ाव से शब्द-संपदा स्वयमेव तय होती है। ठूँसे हुए शब्द अलग से दिखते हैं, चाहे फिर वे अंग्रेजी के हों, महानगरीय आधुनिकता में पगे हों या फिर लोक से आते दिखते हों। इसलिए महत्वपूर्ण यही है कि कविता में वे किस तरह उपस्थित हैं।...
सुदामा पाण्डेय धूमिल जी कह गए अपनी आखिरी कविता में ...
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
ब्लॉग अड्डा पर पल्लवी त्रिवेदी जी दिल्लगी कर रही हैं ....कवि कैसे बना जाता है
यहाँ विश्वानन्द जी बता रहे हैं कविता के बारे में ....कविता क्या है
जैसा कि राजभाषा -हिंदी पर मनोज जी ने बताया .... कविता
कविता सिर्फ वही नहीं होती, जो कवि लिख देते हैं। कविता आत्मा की फुसफुसाहटों से बनी वह महानदी भी है, जो मनुष्यता के भीतर बहती है। कवि सिर्फ इसके भूमिगत जल को क्षणभर के लिए धरातल पर ले आता है, अपनी खास शैली में, अर्थों और ध्वनियों के प्रपात में झराता हुआ। "
अभी भी समाधान नहीं हुआ तो थोडा कष्ट आप करें ...
सर्च करें और जो ज्ञान प्राप्त हो कविताओं के बारे में ...टिप्पणियों में साझा कर अनुग्रहित करें...
कभी कभी तो कोई चुटकी लेते हुए यह भी कह देता है कि क्या बात है!, बड़ी गहरी कवितायेँ लिखी जा रही हैं .....
सच कहूँ तो मैं आज तक समझ नहीं पायी कि मैं कविता कैसे लिखती हूँ .... कैसे शब्द जुड़ते हैं , कैसे विचार आते हैं ...कई बार हैरान हुई हूँ मैं कि मैंने ये लिखा कैसे ...जो मैं लिखती हूँ वह साहित्यिक दृष्टि से कविता है भी या नहीं... ये भी पता नहीं ...बस मैं इतना ही जानती हूँ कि जो विचार दिमाग में इकट्ठा होते हैं , बिना लाग लपेट उन्हें शब्दों में ढालने की कोशिश करती हूँ ,
कई बार दिमाग में चल रहे सवाल , जाने कहाँ कब सा अटका हुआ कोई शब्द , कही पढ़ी हुई कोई तहरीर , कोई वाकया या कोई काल्पनिक परिस्थिति में कोई पात्र कैसा महसूस करता होगा ...यही सब कुछ तो लिख जाता है ...उतर आते हैं शब्दों में और एक कविता बन जाती है ...ये अनायास लिखी जाने वाली कविताओं का आकलन है ...जो सायास लिखा जाता है वहां हर शब्द तौल कर , सोच कर लिखा जाता है ...और सोचने , समझने से तो अपना छत्तीस का आंकड़ा है ...
मन किया कि जरा कवियों की नजर से ही जान लिया जाए कि आखिर कविता क्या है ...कैसे लिखी जाती है ...मेरे साथ आप लोंग भी पढ़ लीजिये ....
कविवर पन्त के शब्दों में ...
"वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान, उमड़ कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान.."
कहा जाता है कि कवि समाज में खुद को स्थापित करने के लिए तुष्टिकरण के संवेग में कविता लिखता है ..समाज की भाषा में खुद को स्थापित करने की कोशिश करता है..और निरंतर करता रहता है . ...
प्रभाकर माचवे जी ने कहा है कविता के बारे में ...
कविता क्या है? कहते हैं जीवन का दर्शन है - आलोचन,
(वह कूड़ा जो ढँक देता है बचे-खुचे पत्रों में के स्थल)।
कविता क्या है ? स्वप्न श्वास है उन्गन कोमल,
(जो न समझ में आता कवि के भी ऐसा है वह मूरखपन)
कविता क्या है ? आदिम-कवि की दृग-झारी से बरसा वारी-
(वे पंक्तियाँ जो कि गद्य हैं कहला सकती नहीं बिचारी) !
हेमन्ती सन्ध्या है, सूरज जल्दी ही डूबा जाता है-
मन भी आज अकारज चिर-प्रवास से क्यों ऊबा जाता है ?
फ़सल कट गयी, कहीं गडरिया बचे-खुचे पशु हाँक रहा है,
सान्ध्य-क्षितिज पर कोई अंजन, म्लान-गूढ़ छवि आँक रहा है ।
बचे-खुचे पंछी भी लौटे, घर का मोह अजब बलमय है,
मानव से प्रकृति की छलना, प्रकृति से मानव छलमय है !
फुरसतिया जी ने कहा है कविता के लिए देखिये यहाँ
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बहुत विस्तार से लिखा है ...." कविता मनुष्य के हृदय को उन्नत करती है और ऐसे ऐसे उत्कृष्ट और अलौकिक पदार्थों का परिचय कराती है जिनके द्वारा यह लोक देवलोक और मनुष्य देवता हो सकताहै।"
कुमार अम्बुज कहते हैं ..." केवल भाषा से, शब्दों भर से कविता संभव नहीं होगी। वह कुछ और चमत्कृत कर सकनेवाली चीज हो तो सकती है मगर कविता नहीं। जहाँ तक कविता में लोकशब्दों की आवाजाही का प्रश्न है तो यह शब्द-प्रवेश अपनी परंपरा, बोध और सहज आकस्मिकता की वजह से होगा ही। "कवि की अपनी पृष्ठभूमि और उसके जनपदीय सांस्कृतिक जुड़ाव से शब्द-संपदा स्वयमेव तय होती है। ठूँसे हुए शब्द अलग से दिखते हैं, चाहे फिर वे अंग्रेजी के हों, महानगरीय आधुनिकता में पगे हों या फिर लोक से आते दिखते हों। इसलिए महत्वपूर्ण यही है कि कविता में वे किस तरह उपस्थित हैं।...
सुदामा पाण्डेय धूमिल जी कह गए अपनी आखिरी कविता में ...
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
ब्लॉग अड्डा पर पल्लवी त्रिवेदी जी दिल्लगी कर रही हैं ....कवि कैसे बना जाता है
यहाँ विश्वानन्द जी बता रहे हैं कविता के बारे में ....कविता क्या है
जैसा कि राजभाषा -हिंदी पर मनोज जी ने बताया .... कविता
कविता सिर्फ वही नहीं होती, जो कवि लिख देते हैं। कविता आत्मा की फुसफुसाहटों से बनी वह महानदी भी है, जो मनुष्यता के भीतर बहती है। कवि सिर्फ इसके भूमिगत जल को क्षणभर के लिए धरातल पर ले आता है, अपनी खास शैली में, अर्थों और ध्वनियों के प्रपात में झराता हुआ। "
---बेन ओकरी (बुकर पुरस्कार से सम्मानित नाइजीरियन कवि एवं उपन्यासकार)
अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
अभी भी समाधान नहीं हुआ तो थोडा कष्ट आप करें ...
सर्च करें और जो ज्ञान प्राप्त हो कविताओं के बारे में ...टिप्पणियों में साझा कर अनुग्रहित करें...
शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010
मेज पर बिखरे बेतरतीब कुछ पंख , शब्दों की टोकरी .....
उसकी मेज पर
बेतरतीब- से बिखरे कुछ पंख
एक चाक़ू
खून के कुछ छींटे
शब्दों से ठसाठस भरी टोकरी
एक घायल परिंदा ...
आसमान में उडती एक चिड़िया
दूर से देखकर यह मंजर
डरती रही ...
उडती रही ...
दूर- दूर....
थककर चूर ...
मगर कब तक ...
आखिर
उतरी गगन से
पंख समेटे
कुछ सुस्ता लूं ...
बदली नजर
बदला मंजर ...
घायल परिंदा
पंख नए अब
गाता कोई नयी धुन
रूनझुन
मेज पर पंख हुए कम
शब्दों की टोकरी कुछ हलकी
आकाश हुआ विस्तृत
सूरज बना दोस्त
कोहरे झांकती सुबह
शब्दों की किरणों से
आत्मा का आह्वान करती है
चोंच में शब्दों का दाना लिए
चोंच में शब्दों का दाना लिए
चिड़िया विचारों का बीजारोपण करती है
कल अपना होगा भयमुक्त
अपनी हर उड़ान में ये विश्वास भरती है....
एक चिडिया आसमान में दूर उड़ते हुए एक मेज पर कुछ पंख , खून के छींटे , चाक़ू , बिखरे पंख , शब्दों की टोकरी देखकर दूर गगन में उडती हुई यही सोचती रही कि बिखरे पंख परिंदों से छीन लिए गए ,शब्द हलक से निकल लिए गए .. मगर जब वह स्वयं थक कर चूर हुई और उतरी जमीन पर तो उसने देखा कि ....दरअसल वह मेज थककर चूर या घायल परिंदों की सहायता के लिए थी ...वे वहां से नए पंख लेते और कुछ नए शब्द और आसमान में फिर वही उड़ान ....
मंजर अभी भी वही था , वही बिखरे पंख , खून के छींटे , शब्दों की टोकरी मगर अब नजर बदल चुकी थी ..
नजरिया बदलते ही नजारा बदल जाता है ...एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं , हमे अक्सर वही नजर आता है, जो हम देखना चाहते हैं ...
इसलिए अच्छा सोचे , सकारात्मक सोचे ....कोशिश तो करें ...
चित्र गूगल से साभार ...
शुक्रवार, 24 सितंबर 2010
स्त्रियाँ होती हैं ........ऐसी भी, वैसी भी
स्त्रियाँ होती हैं ऐसी भी
स्त्रियाँ होती हैं वैसी भी
स्त्रियाँ आज भी होती हैं
वैदेही -सी
चल देती हैं पल में
त्याग राजमहल के सुख- वैभव
खोलकर हर रिश्ते की गाँठ
जीवन -पथ गमन में
सिर्फ पति की अनुगामिनी
मगर सती कहलाने को
अब नहीं सजाती हैं
वे स्वयं अपनी चिता
अब नही देती हैं
वे कोई अग्निपरीक्षा....
स्त्रियाँ आज भी होती हैं
पांचाली- सी
अपमान के घूंट पीकर
जलती अग्निशिखा -सी
दुर्योधन के रक्त से
खुले केश भिगोने को आतुर
किन्तु अब नहीं करती हैं
वे पाँच पतियों का वरण
कुंती या युधिष्ठिर की इच्छा से
स्त्रियाँ ऐसी भी होती हैं
स्त्रियाँ वैसी भी होती हैं
बस तुमने नहीं जाना है
स्त्रियों का होना जैसे
खुशबू, हवा और धूप
बुधवार, 22 सितंबर 2010
स्त्रियों का होना है जैसे खुशबू , हवा और धूप ....
स्त्रियाँ रचती हैं सिर्फ़ गीत
होती हैं भावुक
नही रखती कदम
यथार्थ के कठोर धरातल पर
ख्वाबों सा ही होता है
उनका जहाँ
सच कहते हो
स्त्रियाँ ऐसी ही होती है
पर
स्त्रियाँ ऐसी भी भी होती हैं
बस तुमने ही नहीं जाना है
उनका होना जैसे
खुशबू ,हवा और धूप
मन आँगन की महीन- सी झिरी से भी
छन कर छन से आ जाती हैं
सुवासित करती हैं घर आँगन
बुहार देती हैं कलेश , कपट , झूठ
सर्दी की कुनकुनी धूप सी
पाती हैं विशाल आँगन में विस्तार
आती हैं लेकर प्रेमिल ऊष्मा का त्यौहार
रचती हैं स्नेहिल स्वप्निल संसार
पहनाती बाँहों का हार छेड़ती जैसे वीणा के तार
क्या नहीं जाना तुमने
स्त्रियों का होना
माँ , बहन , बेटी , प्रेयसी
अनवरत श्रम से
मानसिक थकन से
लौटे पथिक को
झुलसते क्लांत तन को
विश्रांत मन को देती हैं
आँचल की शीतलता का उपहार
क्या कहा ...
नही जाना तुमने
होना उनका जैसे
खुशबू , हवा और धूप
जानते भी कैसे...
हथेली तुम्हारी तो बंद थी
पुरुषोचित दर्प से
तो फिर
मुट्ठी में कब कैद हुई है
खुशबू , हवा और धूप.....
स्त्रियाँ होती हैं ऐसी भी......क्रमशः
चित्र गूगल से साभार ...
*****************************************************************************चित्र गूगल से साभार ...
रविवार, 19 सितंबर 2010
तब ही तो जान तुम पाओगे ...
रविवार, 12 सितंबर 2010
मैं पूर्ण हुई ....सम्पूर्ण हुई .....
मिचमिचाती अधमुंदी पलकों में
सपनीले मोती जगमगाए
मेरी सूनी गोद भर आई
जब यह नन्ही कली मुस्कुराई
मैं अकिंचन, हुई वसुंधरा ...
ब्रह्माण्ड मेरी गोद में समाया
रीता था जीवन कलश
लबालब भर छलक आया
थपेड़े गर्म हवाओं के
शीतल हो गए
लगा उसे सीने से अपने
मैं पूर्ण हुई ...सम्पूर्ण हुई
कभी अंगुली थामे
कभी गिरते -पड़ते ...
पकड़ आँचल की कोर
उठ खड़ी होती बार- बार
ठुमक चलती मेरे आँगन में
मुट्ठियों में भर लाती
रेत जैसे कारू का खजाना
खुद खाती मुझे खिलाती
भूख प्यास बिसरी सब मेरी
आजीवन मैं तृप्त हुई
मैं पूर्ण हुई ...सम्पूर्ण हुई
खेलती कभी आँख मिचौली
कभी भाग गोद में छिप जाती
कभी लिटाती गोद में अपने
मां मैं तेरे बाल बनाऊं
कंघी उलझाती बालों में
उलझी लटों को सुलझाने में
मैं सब अपनी उलझन भूली
खिली मेरे बगिया में कली
भर गया मेरा अधूरापन
अब कोई सपना अपना नहीं
थमा उसे सपनों की पोटली
निश्चिंत हुई ...
मैं पूर्ण हुई
सम्पूर्ण हुई....
कुछ अनगढ़े से मगर भावपूर्ण शब्द ....
चित्र गूगल से साभार ...
सपनीले मोती जगमगाए
मेरी सूनी गोद भर आई
जब यह नन्ही कली मुस्कुराई
मैं अकिंचन, हुई वसुंधरा ...
ब्रह्माण्ड मेरी गोद में समाया
रीता था जीवन कलश
लबालब भर छलक आया
थपेड़े गर्म हवाओं के
शीतल हो गए
लगा उसे सीने से अपने
मैं पूर्ण हुई ...सम्पूर्ण हुई
कभी अंगुली थामे
कभी गिरते -पड़ते ...
पकड़ आँचल की कोर
उठ खड़ी होती बार- बार
ठुमक चलती मेरे आँगन में
मुट्ठियों में भर लाती
रेत जैसे कारू का खजाना
खुद खाती मुझे खिलाती
भूख प्यास बिसरी सब मेरी
आजीवन मैं तृप्त हुई
मैं पूर्ण हुई ...सम्पूर्ण हुई
खेलती कभी आँख मिचौली
कभी भाग गोद में छिप जाती
कभी लिटाती गोद में अपने
मां मैं तेरे बाल बनाऊं
कंघी उलझाती बालों में
उलझी लटों को सुलझाने में
मैं सब अपनी उलझन भूली
खिली मेरे बगिया में कली
भर गया मेरा अधूरापन
अब कोई सपना अपना नहीं
थमा उसे सपनों की पोटली
निश्चिंत हुई ...
मैं पूर्ण हुई
सम्पूर्ण हुई....
कुछ अनगढ़े से मगर भावपूर्ण शब्द ....
चित्र गूगल से साभार ...
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