शनिवार, 24 जुलाई 2010
बस माँ ही जानती है ... कलई चढ़ाना ... बर्तनों पर भी ,रिश्तों पर भी ....
माँ लौट आई है गाँव से
खंडहर होते उस मकान के इकलौते कमरे से
अपना कुछ पुराना समान लेकर
आया था जो विवाह में दायजा बन कर ...
पीतल की छोटी छोटी देगचियाँ
देवड़े , चरियाँ , परातें
छोटी , फिर बड़ी , फिर उससे बड़ी ,
करीने से सजा कर रखी जाती होंगी कभी
एक के ऊपर एक पंक्तिओं में ....
ताक कितनी सुन्दर सज जाती होगी ना ...
करीने से सजा तो सब अच्छा ही लगता है
उपयोग ना हो ,दिखता तो अच्छा ही है ...
माँ बड़े प्यार से पोंछती है बारी- बारी से सबको
कितनी मुस्करती हैं उसकी आँखें
जमाकर रखती जाती है उन बेजान बर्तनों को भी
जो उसके गहनों की तरह ही उसके होकर भी उसके नहीं थे ...
याद आते हैं मुझे भी
पीतल के वे छोटे छोटे बर्तन
जिनमे मां चाय बनाती थे ,
दाल उबालती थी,
अंगीठी की कम -तेज आंच में
किनारों से खदबदकार निकलने से पहले ही
ढक्कन हटा देती थी ...
दाल का उबाल हवा बनकर निकल जाता था
और फिर से शांत तली में बैठ जाती थी
माँ कैंसे जान जाती है ...
किसने सिखाया है माँ को
अंगीठी की आंच को संतुलित करना...
उबाल के झाग बनते ही
पानी के छींटे उसे शांत कर देते हैं ..
माँ बनकर मैं भी जान गयी हूँ ...
सिखाया तो मुझे भी किसी ने नहीं ...
सीखते जाते हैं हम जिंदगी से ही अपने आप
याद आते हैं मुझे
पीतल के वे छोटे-बड़े टोपिये
माँ दूध उबाल देती थी जिनमे
दूध कभी फटता नहीं था ...
माँ उसमे कलाई करवाती थी
बस माँ ही जानती है ...
कलई चढ़ाना ...
बर्तनों पर भी
रिश्तों पर भी ....
देवड़े , चरी .... पीतल , स्टील या कांसे के घड़े
टोपिये .... भगौनी
मैं और क्या कर सकती हूँ माँ ....के क्रम में
चित्र गूगल से साभार ...
सोमवार, 19 जुलाई 2010
प्रेम की ही है यह माया
सुहाना मौसम ठंडी बयार
एक सुन्दर छोटी चिड़िया
फुदकती डाली डाली
कभी इस डाली कभी उस डाली
बादशाह था शिकारी
उसपर बहेलिया से यारी
बहेलिया ने फैलाया जाल
करता इन्तजार, दाना डाल
चिड़िया रानी बड़ी सयानी
दादी नानी से सुनी थी कहानी
आती नहीं पास जाल के
भयभीत फिरती दूर गगन में
धीमी सुस्त होती परवाज़
रहती थी बहुत ही उदास
चतुर विज्ञ बहेलिया
सुन ओ प्यारी चिडिया
तू अपने पर खोल
स्वतंत्र विचर गगन में
भर ले मुक्त उड़ान
न संशय रख मन में
जागा चिडिया में विश्ववास
धीमे आई जाल के पास
ची -ची करती चुगती दाना
साहस का पहने बाना
गूंजा सुन्दर वन कलरव से
मुग्ध हुआ उस कोलाहल से
बहेलिया भूला जाल समेटना
चिडिया भूली फर- फर उड़ना
वही वन है , वही उपवन
वही चिडिया , वही कलरव
बहेलिया जाल समेट सकता , समेटता नहीं
चिडिया उड़ सकती , उडती नहीं ...
सुन्दर चिडिया प्यारी चिड़िया
कैसा मधुर हुआ वह गान
भिगोती पंख , फुदकती जी भर
नहीं अब भय , बस स्वतंत्र उड़ान
निर्विकार बादशाह के लबों पर कोमल मुस्कान
मौन देखता बहेलिया प्रकृति का रखता मान
जीवन का आनंद प्रेम में
प्रेम की ही है यह माया
स्वतंत्र हुआ भय, नफरत से
तब प्रेम में ही समाया ......
चित्र गूगल से साभार ...
बुधवार, 14 जुलाई 2010
व्यथित मत हो कि तू किसी के बन्धनों में है ...
अपनी पिछली प्रविष्टि "एक स्त्री के प्रति " के प्रति पाठकों की उत्सुकता और पसंदीदगी ने हिमांशु की ही एक और कविता से रूबरू करने को विवश किया है ...कवि का परिचय देने जितना मेरा शब्द सामर्थ्य नहीं है ...स्त्रियों के प्रति उनके सम्मान भाव और सामाजिक न्याय के आग्रह ने हमेशा ही प्रभावित किया है ...
व्यथित मत हो
कि तू किसी के बंधनों में है,
अगर तू है हवा सुगंधित है
सुमन के सम्पुटों में बंद होकर
या अगर तू द्रव्य है निर्गंध
कोईसुगंधिका-सा बंद है मृग-नाभि में
या कवित है मुक्तछंदी तू
अगर मुक्त है आनन्द तेरा
सरस छान्दिक बंधनों में
या अगर नक्षत्र है तू
परिधि-घूर्णन ही तुम्हारी लक्ष्य-गति है
या अगर तू आत्मा है
देह के इस मृत्तिका घट में बंधी है,
मत व्यथित हो कि
तू सदा ही बंधनों में व्यक्त है, अभिव्यक्त है ।
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रविवार, 4 जुलाई 2010
एक स्त्री के प्रति
स्वीकार कर लिया
काँटों के पथ को
पहचाना फ़िर भी
जकड़ लिया बहुरूपी झूठे सच को
कुछ बतलाओ, न रखो अधर में
हे स्नेह बिन्दु !
करते हो समझौता ?
जब पूछ रहा होता हूँ, कह देते हो
'जो हुआ सही ही हुआ' और
'जो बीत गयी सो बात गयी' ,
कहो यह मौन कहाँ से सीखा ?
जो समाज ने दिया
अंक में भर लेते हो
अपने सुख को, मधुर स्वप्न को
विस्मृत कर देते हो
यह महानता, त्याग तुम्हीं में पोषित
कह दो ना, ऐसा मंत्र कहाँ से पाया ?मन के भीतर
सात रंग के सपने
फ़िर उजली चादर क्यों ओढी है तुमने
हे प्रेम-स्नेह-करुणा-से रंगों की धारित्री तुम
स्वयं, स्वयं से प्रीति न जाने
क्यों छोड़ी है तुमने ?मैं अभिभूत खडा हूँ हाथ पसारे
कर दो ना कुछ विस्तृत
हृदय कपाट तुम्हारे
कि तेरे उर-गह्वर की मैं गहराई नापूँ
देखूं कितना ज्योतिर्पुंज
वहाँ निखरा-बिखरा है ।
काँटों के पथ को
पहचाना फ़िर भी
जकड़ लिया बहुरूपी झूठे सच को
कुछ बतलाओ, न रखो अधर में
हे स्नेह बिन्दु !
करते हो समझौता ?
जब पूछ रहा होता हूँ, कह देते हो
'जो हुआ सही ही हुआ' और
'जो बीत गयी सो बात गयी' ,
कहो यह मौन कहाँ से सीखा ?
जो समाज ने दिया
अंक में भर लेते हो
अपने सुख को, मधुर स्वप्न को
विस्मृत कर देते हो
यह महानता, त्याग तुम्हीं में पोषित
कह दो ना, ऐसा मंत्र कहाँ से पाया ?मन के भीतर
सात रंग के सपने
फ़िर उजली चादर क्यों ओढी है तुमने
हे प्रेम-स्नेह-करुणा-से रंगों की धारित्री तुम
स्वयं, स्वयं से प्रीति न जाने
क्यों छोड़ी है तुमने ?मैं अभिभूत खडा हूँ हाथ पसारे
कर दो ना कुछ विस्तृत
हृदय कपाट तुम्हारे
कि तेरे उर-गह्वर की मैं गहराई नापूँ
देखूं कितना ज्योतिर्पुंज
वहाँ निखरा-बिखरा है ।
कविताकोश पर भटकते एक समकालीन कवि की कविता बहुत मन भाई ...स्त्री के गरिमामय व्यक्तित्व को समर्पित !
कवि का परिचय बाद में ...अभी तो कविता को पढ़े और रचनाकार की स्त्रियों के प्रति अगाध श्रद्धा और सम्मान की भावना को नमन करे !
चित्र गूगल से साभार...
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