रविवार, 21 नवंबर 2010

ना ...अब और ना बचपना !




ना अब बचपना
अब बचपन ना
बहुत हुआ बचपन पर हँसना
अब हँसना ना
अब हँस ना ......!!

बचपन कब चाहे बड़ा होना
मगर जब बड़ा होना
तो बड़ा हो ना ......!!

बचपन से बड़प्पन का सफ़र...
पलक नम सुस्त कदम
बुझी निगाह सांस कम
यही तो है बड़ा होना
तो अब बड़ा ही होना
अब बड़ा हो ना ......!!

चाहा यही तो
बचपन से बड़प्पन का सफ़र
सीखे चुप रहना
तो अब चुप है ना
चाहे मौन रखना
तो अब मौन रख ना ......!!

बस अब और ना बचपना
अब बचपन ना .....!!




पुरानी कविता (?)
पुनः प्रकाशित ....
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शनिवार, 6 नवंबर 2010

दर पर उसकी भी आया मगर देर से बहुत ......





तलाश -ए -सुकूँ में भटका किया दर -बदर
दर पर उसके भी आया मगर देर से बहुत .....

जागा किया तमाम शब् जिस के इन्तजार में
नींद से जागा वो भी मगर देर से बहुत .....

शमा तब तक जल कर पिघल चुकी थी
जलने तो आया परवाना मगर देर से बहुत ....

तिश्नगी उन पलकों पर ही जा ठहरी थी
पीने पिलाने को यूँ तो थे मयखाने बहुत ....

जलवा- - महताब के ही क्यों दीवाने हुए
रौशनी बिखेरते आसमान में तारे तो थे बहुत ...

नम आंखों से भी वो मुस्कुराता ही रहा
रुलाने को यूँ तो थे उसके बहाने बहुत ....

जिक्र उसका आया तो जुबां खामोश रह गयी
सुनाने को जिसके थे अफसाने बहुत ......



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