बुधवार, 5 दिसंबर 2012

तेरा होना जैसे कि कोई ख़याल ....



सुनहरी धूप   में 
आँखों को चौंधियाते 
भुरभुरी रेत के टीबे  से 
होते हैं कुछ ख़याल 
पास बुलाते हैं इशारे से 
छू कर  देखे तो 
पल में  बिखर जाते हैं !

उम्र की सरहदों के पार 
बालों से झांकती सफेदी के बीच 
मोतियाबंदी आँखों में झिलमिलाते  
पोपले चेहरे की लजीली मुस्कराहट 
हमसाया सा  आस -पास 
जीवन भर रहता  एक  ख़याल !!

अहसास की किताबों के पन्ने 
लिखे जाते हैं स्वयं ही 
मन हुआ तो पढ़ लिया 
वर्ना पन्ने पलट दिए .
ऐसे ही किसी पन्ने पर  
लिखा हुआ  कोई ख़याल !!

काली गहरी रात के वितान पर 
सुनहरे सितारों से सजा 
बेखटके निहारते 
आसमान पर टांग दिया 
एक खयाल !


जीवन मुट्ठी से फिसलती रेत -सा 
पलकों के इर्द गिर्द रहा एक  ख्याल 
मुद्दतों यही सोच कर आँखें रोई नहीं 
गीली रेत  पर क़दमों के निशाँ साफ़ नजर आते हैं .!!

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

पर अब जो आओ बापू.....



देश में जो हाहाकार मची है
मारकाट चीखपुकार मची है
टुकड़े टुकड़े हो जाए ना
आर्यावर्त कहीं खो जाए ना

जाति पांति की हाट सजी है
मजहब की दीवार चुनी है
स्वतंत्रता कहीं बिक जाए ना
देश मेरा खो जाए ना

जाति धर्म प्रान्त भाषा कुर्सी की यह जंग
देश को अनगिनत सूबों में बदल जायेगी
फिर कोई ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के बहाने
हम पर हुकूमत चलाएगी
नींद से जागेंगे जब हम भारतवासी
फिर बापू तुम याद आओगे
इस देश में बापू तब ही
 तुम फिर से पूजे जाओगे

आर्त पुकार  सुनकर तुम कही घबराओगे
पुनर्जन्म पाकर जो फिर से लौट आओगे
स्वदेश की अलख फिर से जगाओगे
फिर से राष्ट्रपिता की पदवी पा जाओगे
सच कहती हूँ बापू तुम फिर से पूजे जाओगे

पर अब जो आओ बापू
मत आना इनके झांसे में
बहकाए ना फिर से तुमको 
ना शामिल होना इनके तमाशे में

सलाह मेरी पर ध्यान धरना
तीन बन्दर जरुर साथ रखना
पर पहले की तरह ये मत कहना
बुरा मत देखो बुरा मत कहो बुरा मत सहो
इस बार अपना संदेश बदलना
आँख कान मुंह हमेशा बंद ही रखना
स्वदेश मंत्र को हाशिये पर रखना
सत्ता जंतर का पूरा स्वाद चखना

भावुकता के पचडे में मत पड़ना
हाथ जोड़ कर विनम्रता से कहना
राष्ट्रपिता के पद का मुझे क्या है करना
मेरी झोली तो तुम छोटे से मंत्री पद से भरना
पाँच वर्षों में ही झोली इतनी भर जायेगी
सात न सही चार पीढियां तो तर ही जायेंगी


ज्ञानवाणी से प्रकाशित

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

झीलें है कि गाती- मुस्कुराती स्त्रियाँ .....


आनासागर , अजमेर 



सिक्के के दो पहलूओं की ही तरह  एक ही झील एक साथ अनगिनत विचार स्फुरित करती है . कभी स्वयं परेशान हैरान त्रासदी तो कभी झिलमिलाती खुशनुमा आईने सी , जैसे दृष्टि वैसे सृष्टि- सी ...  जिस दृष्टि ने निहारा झील को या कभी ठहरी तो कभी लहरदार झील की आकृतियों के बीच  अपने प्रतिबिम्ब को, अपनी स्वयं की दृष्टि-सा ही दृश्यमान हो उठता है दृश्य .


झील जैसे स्त्री की आँख है 

झील जैसे स्त्री की आँख है
कंचे -सी पारदर्शी पनियाई 
आँखों के ठहरे जल में 
झाँक कर देखते 
अपना प्रतिबिम्ब हूबहू 
कंकड़ फेंका हौले से 
छोटे भंवर में 
टूट कर चित्र बिखरना ही था ...
झीलों के ठहरे पानी में 
कुछ भी नष्ट नहीं होता 
लौटा देती तुम्हारा सम्पूर्ण 
सहम कर भी कुछ देर ठहरना था 
झील के सहज होने तक ! 


 झीलें  है कि  गाती- मुस्कुराती  स्त्रियाँ 

समूह में  गाती- मुस्कुराती स्त्रियाँ 
आत्ममुग्धा आत्मविश्वासी स्त्रियाँ  
दिखती है उन झीलों- सी 
जुडी हुई हैं जो आपस में नहरों से ... 

झीलें जो जुडी हुई आपस में  नहरों से
शांत पारदर्शी चमकदार जल से लबालब 
आत्मसंतुष्ट नजर आती हैं जैसे कि 
करवा चौथ पर या ऐसे ही किसी पर्व पर 
अपनी पूजा का थाल एक से दूसरे तक सरकाते 
और अपनी थाली फिर हाथ तक आते 
एक दूसरे के कान में फुसफुसाती 
ठहाके लगाती ,मुस्कुराती स्त्रियाँ !!

झील की सतह पर तैर आये तिनके 
धूल मिट्टी या कंकड़ 
एक से दूसरी झील तक आते
धुल जाते हैं 
किसी झील की आँख का पानी सूखा कि 
सब बाँट कर अपना जल 
भर देती है उसे 
किसी झील में किनारे पड़ी है गंदगी 
काई होने से पहले 
दूसरी झीलें बाँट कर अपना थोडा जल 
भर देती हैं  लबालब कि छलक जाए 
छलकती झीलें पटक देती हैं  
कूड़े को किनारे से बाहर !

झीलों  के किनारे पड़े 
कंकड़- पत्थर , कूड़ा करकट 
जैसे अवसर की तलाश में हैं 
झीलों के बीच बहने वाली 
नहर के  सूख  जाने को प्रतीक्षारत!!



शनिवार, 15 सितंबर 2012

शाम के साये में ....






थका मांदा सूरज 
जब चलता है अस्तांचल को 
काँधे से उतारता 
रश्मियों को 
सागर  किनारे 
शांत लहरों में ...

अनगिनत रंगों की छटा 
रंग देती है अम्बर को 
पंछी भी छोड़ कर 
उन्मुक्त परवाज़ 
लौटते हैं नीड़ में ...
सूरज की घडी से  
मिलाते हुए 
अपनी घड़ियों को ...

आने - जाने के इस कोलाहल  में 
प्रकृति की इस जादूगरी से सम्मोहित भी 
कभी- कभी  उदास हो जाता है मन !

सोचते हुए उन थके हुए लोगों को 
तोड़ दी गयी है जिनकी घड़ियाँ 
जिनका  समय किसी से नहीं मिलता 
ना सूरज से 
ना पंछियों से ..... 
या फिर सोचते उन बसेरों को 

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

कवितायेँ आजकल " वाद" की ड्योढ़ी पर ठिठकी हैं




ह्रदय - अम्बुधि  अंतराग्नि से
पयोधिक -सी छटपटाती उछ्रंखल 
प्रेममय रंगहीन पारदर्शी  
कवितायेँ 
जिन्हें लुभाता  है सिर्फ एक रंग 
कृष्ण की बांसुरी का 
लहरों के मस्तक पर धर पग  
लुक छिप खेलती 
प्रबल वेग  के प्रवाह से 
दौड़ी आती छू  लेने को किनारा 
घबराई हिचकती 
भयभीत लौटती हैं 
पुनः हृदय -समुन्दर के अंचल में 
जब देखती हैं 
तट पर उत्सुक मछेरे 
किसम -किसम के 
"वाद " की  झालरें टंगी
गुलाबी मत्स्य जाल फैलाये
बलात रंग चढाने को आतुर 
कभी हरा कभी केसरिया 
कभी रंग लाल कुल्हाड़ी तो 
कभी नीला हाथी 

घोर कविताहीन बना दिए जाने वाले 
इस समय में 
स्वतः स्फूर्त 
प्रत्यूष   लालिमा- सी उत्फुल्ल 
रहने वाली 
कोमल  कवितायेँ 
आजकल  
धूमिल -मुरझाई 
मीठे वचनो मे जिनके
दबी है फ़ुसफ़ुसाहटे 
अवसरवादी 
भाषाविद मछेरों  
की ड्योढ़ी 
पर  ठिठकी  हैं !



रविवार, 19 अगस्त 2012

कस्तूरी - एक दृष्टि (2)


हिंद युग्म द्वारा प्रकाशित काव्य संकलन कस्तूरी - एक दृष्टि (1) से आगे ...

प्रथम किश्त में  इस संकलन के १२ रचनाकारों की काव्य प्रतिभा  से परिचित हुए , अब आगे ...


13. मीनाक्षी  मिश्रा तिवारी -- अपनी कविता जीवन में जीवन को चिरस्मृत  बनाने की प्रेरणा देती हैं  . 
दर्द की रामबाण दवा  है मुस्कराहट  और वो एक दिन जो अपने अस्तित्व के भान का कारण बना हो , मुस्कराहट  बनकर होठो पर सज जाता है . 
प्रेम की जादुई शक्ति पतझड़ को भी मधुमास -सी सरस बना देती है . 
जीवन संघर्षों की गणितीय परिभाषा लिखती है समाकलन में . जब समीकरण जीवन का बन जाता है तब उसमे ही जीना है , अवकलन का कोई विकल्प नहीं रह जाता तब .

14. मुकेश गिरी गोस्वामी -- प्रेम की स्मृतियाँ कस्तूरी- सी ही होती है , इनसे सरोबार इन्हें भूले भी तो कैसे . अब तलक तेरी खुशबू आती है मुझे जीना सिखाती हो तुम , तुम्हारा  साथ होता तो श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती . 
प्रेम में संस्कारों  को त्यागा नहीं गया और संस्कारों के बोझ तले प्रेम विरह में बदल गया " तुमसे कभी रोया ना गया " . इश्क में गैरत- ए- जज़बात ने रोने न दिया की याद दिलाती है यह कविता .

15.   रजत श्रीवास्तव -- प्रेम के सर्वश्रेष्ठ रिश्ते मौन में ही निभते हैं , बादल और धरती  प्रेम में किस भाषा का प्रयोग करते हैं भला!
तुम्हारे रहते स्वप्न सीमाहीन है या स्वप्नों की सीमा तुम हो . 
इनका मर्यादित प्रेम अपनों के दिलो की टूटी तहरीर पर नहीं लिख पायेगा , बंदिशों ने एक दूसरे से दूर किया हो मगर दूर रहकर भी मैं तुमसे अलग नहीं . 
मुहब्बत की इंतिहा तो यही है कि महबूब आकर मुझमे ही समा जाए , वही मुहब्बत और वही जुस्तुजू " देख ले " गज़ल  में . 

16. रश्मि प्रभा - अंतरजाल पर सर्वाधिक लोकप्रिय कवयित्रियों में शामिल रश्मि प्रभा जी तथा  उनकी रचनाओं से कौन अपरिचित रहा है  .  पत्र -पत्रिकाओं और पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुकी इनकी काव्य प्रतिभा अब किसी परिचय की मोहताज नहीं रही है .
इनकी कविताओं में प्रेम आध्यात्म के उच्च शिखर पर है  तो सामाजिक सरोकार , निर्देश भी कविताओं  के जड़ से छूटे नहीं है . 
मुश्किल है में  क्रूर मानवीय षड्यंत्रों के कारण माँ अपने कलेजे  के टुकड़े को लोरी ना सुना पाए तो अपने गीत को काली के उद्घोष में बदल लेती है . ऐसे में रचना या कर्म  के सिद्धांत और आदर्श की बात व्यर्थ हो जाती है . 
हरिनाम में विषमताओं से भरे जीवन में कृष्ण ने रिश्तों का असली रूप दिखाया , निस्सारता का पाठ पढाया .
समझदार होने के क्रम में मासूमियत पीछे रह जाती है , आगे बढ़ने के दौर में निश्छलता ,निष्कपटता भी खो ना जाए, यही सन्देश है परेशानियाँ तो दरअसल समझदारी में है . 
उन्नति के शिखर  की ओर कदम बढ़ाते कई बार मन सोचता है कि मैं बनकर जो मिला , क्या वाकई वह एक उपलब्धि ही है .  ए तुम! क्या हो तुम एक नाम के सिवा . धीरे- धीरे सब मेरा मौलिक  छूट जाता है , जो बचता है वह सिर्फ एक औपचारिकता है नाम की , नाम भर की . 
हमेशा मैं ही हौसले की बात  क्यों करूँ ...कोमल कंधे कब तक मजबूती से दूसरों का सहारा बने रहे थकान , निराशा , कंधे की दरकार तो मुझे भी है , कब तक मैं ही कहती रहूँ कि मैं हूँ ना ! 

17. राहुल सिंह --राहुल का स्वयं का कोई ब्लॉग नहीं है . ये अपने फेसबुक पेज काव्यधारा द्वारा अपनी रचनाएँ अंतरजाल पर साझा करते हैं . 
आज़ाद होने की वर्षगाँठ मनाते मन के भीतर कही कुछ चुभता है . आज़ादी के नारे देते हुए कई बार सोचना होता है कि दासता से मुक्ति पाने का कार्य सम्पूर्ण रूप से सफल नहीं हुआ तो हम आज़ाद कहा रहे, अभी गरीबी , अशिक्षा , भ्रष्टाचार , कुपोषण , कुविचार से सफल नहीं हुए तो कार्य सफल कैसे हुआ , दासता से  मुक्त होने का नारा असफल कार्य ही कहलाया . 
अपनी कविता " भारत -दर्शन " में उनकी अपने देश के प्रति निष्ठां और गर्व उभरता है जब वे विश्व भ्रमण की बनिस्पत भारत-भ्रमण को प्राथमिकता देना चाह्ते हैं .  
जीने की मर्यादा में एक इंसान के स्वाभिमान को प्रदर्शित करती है जो अपने लिए दयनीय दृष्टि नहीं , बल्कि सम्मान चाहता है , अभिमान भी नहीं .
ऐसा भी दिन आता है में दुःख के दिन कैसे भी हो , बीत ही जाते हैं का सन्देश दिया है .दर्द का इतना बढ़ जाना कि खुद दवा हो जाने जैसा ही !
बुरे दिनों के दौर में मन चिंतित यही सोचता कहता है , कब आएगी शाम सुनहरी  ? 

18. रिया - ओहदे से स्वयं को कवयित्री नहीं मानने वाली रिया दुनिया से कदमताल करते हुए कई बार उसके दिखावटी रंग में उसके साथ नहीं ढाल पाने का अफ़सोस दुनिया छलिया बन छल गयी  में अभिव्यक्त करती हैं . 
दिल और दिमाग के बीच की कशमकश में कांपते हाथों और भटकते शब्दों में कुछ लिख पाना कठिन ही है इसलिए वे कहती है शायद लिख नहीं पाउंगी .
वो हाथों का मिलना हमने संभाल कर रखा है कविता में प्रेम के खूबसूरत पल सहेजे हुए हैं . 
पड़ोस की वृद्धा की चीख बेचैनी  भरती है कि आखिर यह शरीर की यह  अवस्था अभिशाप है या बीमारी , डर और चिंता दोनों ही इस कविता में मुखर हुई हैं . 

19. वंदना गुप्ता - वंदना  जी भी अंतरजाल पर सक्रिय सशक्त हस्ताक्षर हैं  जिन्होंने प्रिंट मीडिया  में भी विशिष्ट रचनाकार के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज की है . कृष्ण के प्रेम में राधा   हो जाने वाली वंदनाजी की काव्य लेखन की अपनी विशिष्ट शैली है. कस्तूरी में संकलित उनकी पांच कविताओं में  अभिव्यक्ति  के विभिन्न रंगों की भीनी  खुशबू है . 
प्रेमी का इंतज़ार पोर- पोर में टीस उत्पन्न करता है , सुई और उसके चुभन की पीड़ा का बिम्ब है " इंतज़ार की सिलाई नहीं होती " में .
प्रेम पढ़ाई जीवन के पन्ने पलट लेने भर जैसा सरल नहीं है , हर्फ़- दर- हर्फ़ हर पन्ना एहतियात  से पढना और समझना होता है ,तभी तो यूँ ही डिग्रियां नहीं मिलती प्रेम में ...
मां ! तुझमे एक बच्चा नजर आता है में वृद्धावस्था की ओर बढ़ती माँ की सारसंभाल करती बेटी जाने कब माँ की भूमिका में आ जाती है और दोनों की भूमिकाएं परस्पर बदल जाती है . माँ ने बचपन में बच्चों के लिए गलत -सही का निर्धारण अपने विवेक से करती है , बेटी भी अपनी माँ के लिए अच्छा बुरा सोचते माँ जैसी ही हो जाती है . सबका अपना दृष्टिकोण   में गिलास आधा है या भरा है , यह प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न दृष्टिकोण पर निर्भर करता है ,नज़ारे बहुत कुछ अपनी नजरों पर भी निर्भर होते हैं . 
हर चीज की कीमत होती है बताती है कि बुलंद इमारतों के लिए मजबूत नींव जैसी ही तुम्हारी  कामयाबी के पीछे भी  हमारी क़ुरबानी और अधूरी हसरतों की लम्बी दास्ताँ है . 
" अछूत हूँ मैं " में पुरुष के दंभ को पोषित नहीं करने वाली स्त्रियों को अपयश का भागी करार दिए जाने के षड़यंत्र का बखान है . 

20. शिखा वार्ष्णेय  -- पत्रकारिता और यात्रा संस्मरणों में अपना रसूख स्थापित करने वाली शिखा की लेखन वार्डरोब में   ने बेहतरीन कवितायेँ  टंगी हैं . 
 मै और तू ...जीवन के संघर्ष  मे साथ होते है , मै और तू एक साथ ही गुजरते है, मगर सुखी नजर आने वालो को देखकर  उनके संघर्ष  का अंदाजा सबको नहीं होता . स्त्री और पुरुष की की प्रेमाभिव्यक्ति के सूक्ष्म अन्तर को टाई और चेन का बिम्ब देकर दर्शाया है .  
रद्दी पन्ना रिश्तो को  बिखराव से बचाने के लिए ध्यान से सहेजे जाने का सन्देश देती है .कोरे पन्नो पर काले शब्दो को लिखना था एहतियात से  , स्याही बिखरी नहीं पन्ना रद्दी हुआ ...  
व्यस्त और स्वार्थ परक दुनिया में भावनाओं को अनदेखा किया जाना उन्हें नहीं भाता . भावनाएं हिंदी कविता की किताब सी , ढेरों उपजती हैं पर पढ़ी नहीं जाती . भावनाओं के ज्वर को मधुर बोल की ठंडी पट्टी और प्यार की टैबलेट की जरुरत होती है .
स्वयं से प्रेम  कविता के अपने निरीह अस्तित्व के प्रति भी संवेदना जगाता है .
 जब मौन प्रखर हो व्यक्त हुआ , कहा वक़्त ने हो गयी देरी है ! गेय  रचना है 
गट्ठे भावनाओं के  में कविता  भावनाओं , संवेदनाओं , शब्दों , विचारों को कलछी , हलवा , आंच आदि के बिम्बों का छौंक लगाकर भरपूर  स्वादिष्ट बनाई  गई है . 
प्रेम पुराना होता है , मगर खुशबू उसकी हर दम ताज़ा ही होती है ...कमीजें कितनी भी बदलो , पुरानी कमीज नुमा प्रेम नहीं बदला जाता ...  

21. हरविन्दर सिंह  सलूजा  -- एक पूरी दुनिया जहाँ लेनदेन , मार -काट , हिंसा -प्रतिहिंसा में उलझी हुई है , कविताओं में ही सही. प्रेम निराशा के वातावरण के बीच एक उम्मीद जगाता है . हरविंदर जी की कवितायेँ ऐसे ही प्रेम के रंग रंगी है . 
एह्सास उसकी खुशबू का .प्रेम कुछ लम्हो के लिये आये जिन्दगी मे , मगर खुश्बू उसकी हर जगह आयेगी. 
कुछ पन्ने जिन्दगी के , कैसे उसे दीवानी लिखू , तेरा  मुझमे मिल जाना , जैसे आसमा का जमीन पर आना , तू  बोल दे आज तो मै तुझ सा होता हूँ   .सभी कविताये प्रेम -कस्तूरी की सुगंध से सुवासित हैं  .

२२. अन्जू (अनु )चौधरी --. कस्तूरी काव्य संकलन के मध्यम से अंजू जी ने संपादन के क्षेत्र में अपना पहला कदम रखा है . कवितों के चयन में उनकी परिपक्वता संपादक के रूप में उनकी भूमिका की श्रेष्ठता प्रमाणित करती है .
उनकी कविताओं में सामाजिक सरोकार से लेकर रिश्तों की दुरुहता भी प्रतिध्वनित होती है .    मेरा तमाशा , मेरा दर्द  में दुशासन के हाथो प्रताडित स्त्री कृष्ण  को पुकार रही थी . स्त्रियों के साथ होने वाली घटनाओं  के प्रति मिडिया की सम्वेदनहीनता  पर तंज  करती है जो सम्वेदनाओ की आंच  पर अपनी लोकप्रियता की रोटी सेकता है. उनके लिये औरत की आबरू पर हमला सिर्फ़ एक समाचार है , मनोरन्जन है. 
जिन्दगी के करीब आते , दूर जाते जीवन एक लम्बी खामोशी सा लगता है . 
जीवन गुजर तो रहा है , मगर अभी तेरे संग  जीना बाकी  है " कि अभी बहुत कुछ बाकी है "
प्रतिध्वनि सन्देश देती है कि  जब प्रतिक्रियात्मक विचार से विचलित हुए बगैर जीवन को उसकी विभिन्नता को स्वीकार किया जाये तो जीवन सरल हो जाता है .  
बुरा वक़्त स्वयं अपनी कहानी कह रहा है , कई बार भाग्य के आगे हाथ बांधे हुए ही मालूम होते हैं .
अपने लिए में प्रेम के प्रति स्त्री और पुरुष के विरोधाभासी दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया गया है .स्त्री और पुरुष के लिए प्रेम की परिभाषा भिन्न हो जाती है . स्त्री प्रेम में समर्पित होती है जबकि पुरुष अधिकार मांगता है . पुरुष स्त्री को सम्मान प्रेम देता है सिर्फ अपने लिए , नारी क्या चाहती है ,यह प्रश्न  उसके ह्रदय - कन्दरा के द्वार पर लगी सांखल को नहीं खटखटाता . जबकि प्रेम वह नहीं है जो अपने जीवन साथी या प्रेमी को अपनी पसंद का भार लादते हुए स्वयं की सुविधानुसार  दिया जाये. प्रेम वह है जो प्रेमी या प्रेमिका को प्रसन्नता देता है  .अंजू जी ने रिश्तों और प्रेम की इस जटिलता को कविता में प्रस्तुत किया है .   

23मुकेश कुमार सिन्हा -- अंतर्जाल पर अपनी अभिव्यक्ति  को शब्द देते मुकेश रचनाधर्मिता में उत्तरोत्तर प्रगति करते गये और  पाठक से लेखक , कवि , समीक्षा और संपादक भी हो गये.
कविता स्मृतियाँ में  दर्द भरे , भीषण   कठिनाईओं  भरे दिन जब गुजर जाते हैं  तो स्मृतियों में आकर अपने संघर्ष के प्रति अपने हौसले को याद करते गर्व की अनभूति होती है तथा  स्वयं की पीठ थपथपाने का मन होता है. 
मुकेश अपनी कविता में आतंकवाद का राजनीतिक चेहरा  उघाड़ते हैं  . दो समुदायो के मध्य अफ़वाहो द्वारा गलतफहमियां उत्पन्न कर दंगे  फ़साद कराने वाली राजनीति का पर्दाफ़ाश करते है . इन दिनो असम मे होने वली घटनाएँ  और उसकी प्रतिक्रिया मे बंगलौर और और अन्य दक्षिण भारतीय शहरों से  से प्रवासियों  के पलायन की गाथा कहती नजर आती है .. 
यूटोपिया  में प्यार जहाँ हैं , तकरार वही होगी . प्रेम मे रूठना - मनाना , दर्द -विषाद , वितृष्णा -दुराव एक  ही सिक्के के दो पहलू से नजर आते हैं ..
एक नदी का मरसिया नदियों   के दूषित जल से दुखी  व्यक्ति या समाजों की  पर्यावरण के प्रति  चेतना को भी प्रदर्शित करते हैं   . 
" पता नही क्यो " में सत्य कहने की शिक्षा  देना जितना सरल दिखता है उसे निभाना, उस पर अमल कर पाना  उतना ही मुश्किल है नजर आता है .  

24 . वाणी शर्मा -  कस्तूरी काव्य - संग्रह में मेरी   पांच कवितायेँ का शामिल होना मुझे प्रफुल्लित कर रहा है . मैं अपनी रचनाधर्मिता को अंतरजाल के सकारात्मक पक्ष  के रूप में  देखती हूँ . इस आभासी दुनिया की प्रेरणा के बदौलत ही डायरी में बंद  चंद पंक्तियाँ  कविताओं के ब्लॉग पर अवतरित होती पत्र -पत्रिकाओं -पुस्तकों तक जा पहुंची है . 
जीवन के लिए रोटी -पानी के साथ प्रेम भी एक आवश्यक खुराक है , नफरत भरी इस दुनिया में प्रेम पर विश्वास बनाये रखना ही जीवन्तता का द्योतक है . हालाँकि मैं यह मानती हूँ कि प्रेम पर जितना लिखा गया है , इसका शतांश भी जी लिया गया होता तो इस दुनिया का रंग कुछ और ही होता . प्रेम लिखने -कहने से ज्यादा महसूस करने की भावना है मगर  दस्तावेजों  में प्रेम लिख कर ही प्रदर्शित किया जा सकता है . प्रेम के प्रति  मुग्धता  का भाव है  लिख रहा है कही कोई प्रेम -पत्र में . चारदीवारियों से घिरे मकान में खुली हवा और धूप के लिए खिडकियों का खुला होना ज़रूरी है जैसे कि समाज के स्वस्थ विकास के लिए खुले दिमागों का होना .  
मेरे घर  की खुली खिड़की से में अपनी बसाई गृहस्थी के  के प्रेम  में डूबी स्त्री दूसरे के घर की बंद खिडकियों के पार अँधेरे की घुटन को महसूस कर लेती है .
प्रेम है तो वितृष्णा और नफरत फ़ैलाने वाले किरदारों की कमी भी नहीं है, इन्हें अनदेखा  करते हुए सकारात्मक जीवन का सन्देश है  पतझड़ के पहरेदार में . 
बेटियों को जन्म लेने से पहले गर्भ में ही मार देने की साजिश  आधुनिक समाज के दोगलेपन को " गर्भ हत्या का अपराधबोध उतार लेते हैं " में दर्शाती है . 
बेटियों को पराया कर दिए जाने वाली हमारी सामाजिक व्यवस्था में माँ के प्रति विशेष कुछ नहीं कर पाने की व्यथा को शब्द देने की कोशिश है " मैं और क्या कर सकती हूँ माँ " में .  


*किताब फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है और लेने वाले इस लिंक पर जा सकते हैं-  
kasturi-9381394148/p/

itmdbv8djgruzz9c?pid=
9789381394144&ref=15ac47da-

2127-4299-b642-b9754a0805ae 

शनिवार, 18 अगस्त 2012

कस्तूरी ...एक दृष्टि (1)





हिंद युग्म प्रकाशन ने  मुकेश कुमार सिन्हा और  अंजू (अनु) चौधरी के सयुंक्त संपादन में "कस्तूरी :"काव्य संकलन प्रस्तुत किया है जिसमे उन्होंने  24 काव्य- सुगंधियों  को  शामिल किया है . २२ अगस्त को दिल्ली में होने वाले  कार्यक्रम में इस पुस्तक  के विमोचन  की तैयारियां यहाँ  जोरो पर है . 



पुस्तक  परिचय में इस काव्य  संग्रह का   नाम  कस्तूरी  इस अर्थ में  सार्थक  हो गया है  . जैसे   मृग  अपनी नाभि में  कस्तूरी लिए इसकी खुशबू के लिए भटकता  है , यह काव्य संग्रह भी इन कवि /कवियित्रियों के विचारों के रंग और शब्दों की खुशबू से सरोबार है .  कस्तूरी मे एक साथ ही विचारों , भावनाओं और कल्पनाओं के विभिन्न रंग  भक्ति , शक्ति  ,मौसम की बहार , परम्परा की धारा ,  आधुनिकता का  लिबास , विश्वास , इन्तजार किसी के लौट आने का , कही वियोग की छाया , कही  टूटन की पीडा , कही भरपूर आत्मविश्वास , इन्द्रधनुष - से  सिमटे  हुए  हैं . 

संपादक द्वय अपने इस संकलन को अपने विचार , प्रेम , आत्मविश्वास और सहयोगी साथियों के साथ मिलजुल का बनाये गये आशियाने जैसा ही मानते हैं ....
" हम तो यूँ ही इस जमी पर आये थे 
अकेले ही 
खुद ब खुद एक काफिला बना 
विचारों का 
सोचा ना था यूँ साथ मिलेगा कुछ अपनों का 
और कुछ अपने जैसों का 
ना  इमारत    की  ख्वाहिश   थी 
ना सपनों के महल की ही जरुरत थी 
थी तो बस मुट्ठी भर प्यार की 
अपना यह  आशियाना  सजाने की !

हर  ह्रदय   में अपूर्व सुगंध भरी है   
सम्बन्ध जोड़ने  के बाद 
तुम  सब  कस्तूरी मृग  हो  
फिर भी भागते फिरते खोजते हो  खुद को 
अंजू जी  लिखती हैं .

कस्तूरी काव्य संकलन में जाने -पहचाने  श्रेष्ठ काव्य रचनकारों  के साथ   युवा दखल को भी शामिल  किया गया है . इस पुस्तक  में शामिल कवि /कवयित्रियों की रचनाओं  का  क्रमवार परिचय    इस प्रकार है --

1. अजय देवगिरे --पहली ही कविता  " जाने  वो  किधर  है " कस्तूरी की खुशबू की मानिंद है . जिसकी तलाश में निकले हैं  , जाने  वो  किधर है . 
प्रेम कवितायेँ  हर शै  में महबूब  का ही दीदार कराती  हैं तभी  तो  सिवा प्रेम के  कुछ और नजर  नहीं  आता  , इनकी  कविता    " तू ही तू  है " . 
अगर तुम  होते , इश्क  खुमारी  , तुझमे खो जाऊं  में सर्वत्र  प्रेम ही प्रेम है . 

२. अमित आनंद पाण्डेय -- हर मानव अपने विचारों के द्वंद्व से घिरा है , वह सन्दर्भ है , सार भी , मुखर है तो मौन भी . इसी विविधता को अपनी पहचान बताते हैं अमित अपने में हैरान  है कि  वह   सन्दर्भ  भी है और सार भी मुखर है तो मौन भी .
  मेरी कोमल तितली ईश्वर ने तुम्हे सिर्फ रंगीन पंख दिए हैं न कान नहीं दिए शायद ...कोई  सदा   महबूब तक नहीं जाती या फिर पुकार नहीं पाती  . (कस्तूरी सा खयाल   ) .
माँ बुनती है हर साल उम्मीदों के सूत से गर्म लोई .सूत और लोई का बिम्ब माँ के अहसासों  और दुआओं  में अपने बच्चों के प्रति प्रेम को दर्शाता है . साथ  ही किसी कोने से यह भय भी झांकता है कि ठण्ड तो हर वर्ष रहेगी मगर क्या माँ भी .. !.
बरसात   हमेशा बहार की आहट नहीं है " आज की बारिश "  में   शहर  में हुए  धमाके  की अँधेरी  काली रात   में डरे सहमे बच्चे माँ से पूछते हैं पिता के अब तक घर ना आने का सबब और इस पूछने में छिपे भय का दर्द रीढ़ की हड्डी में सिहरन   पैदा  करता है . 

3. आनंद द्विवेदी --जीवन एक "रंगमंच " है और हम सब इसके किरदार . प्रकृति ने जो किरदार दिए हैं , वह ठीक से निभाए जाएँ , जीवन उसके जीने में सार्थक है , क्या, क्यों के  प्रश्न  में नहीं ! 
हमारी दुनिया में  मौसम बदलता है मगर प्रेम नहीं , कुछ लम्हे उसकी दुनिया में कैद होकर रह जाते हैं  , आखिरी कैद प्रेमी की जंग है शरीर  की  जंजीरों से पार गुजर जाने की .
अपनी कविता " हरसिंगार " में प्रेम के खुशबू  बनकर  स्वयं  में रच बस जाने  का सन्देश देती है .  

4.राहुल तिवारी -- मेरे घर कृष्ण  आये , कल हो न हो की चिन्ता मे है,  चाँद   ने पूछा बादल से . इनकी कविता " पुराने पेड मे नये पत्ते " प्रभावित करती है . पेड पर लगने वाले नये पत्ते पेड का इतिहास नही जानते , बदलते मौसम ने किस तरह पुराने पत्ते विदा होते गये और पेड बस खडा देखता ही रहा , इन पत्तो ने  नहीं   देखा था , मगर जब वे स्वयम नये पत्तो को पुराना होते पेड से बिछडते देखते हैं  तब वृक्ष की व्यथा से परिचित हो जाते हैं  , समय सब दिखा देता  है . 

5. गुन्जन अग्रवाल अपनी कविता में  पूछती  है कि उनके प्रेम और हमारे प्रेम मे अन्तर कैसा है ..जब  हर पुरुष  प्रेम मे कृष्ण  है , स्त्री राधा है तो हमारा प्रेम भी तो उन प्रभु जैसा पारलौकिक  ही तो हुआ , हममे से ही किसी को तो हमने अपना ईश्वर चुना .अवतार मनुष्य रूप मे ही तो थे, तो फ़िर हमारे प्रेम को भर्त्सना क्यो मिले , वह भी तो उतना ही आध्यात्मिक  , पारलौकिक हो सकता है , जैसा कि राम , कृष्ण  य ऐसे किसी  अन्य अवतार का था क्योंकि ये अवतार हम जैसे इंसानों के मध्य से  ही  चुने   गये थे . 
अपने प्रेम को विराट होने के अर्थ मे कह्ती है "  मेरा   प्रेम बौनासाई  नही , कदम्ब है . "
द्रुपद पुत्री पान्चाली के अर्जुन के प्रेम मे पांच  पतियो के बीच विभक्त होने के बलिदान की व्यथा उनसे एक पाती पान्चाली के नाम लिखवा लेती है. 


6. गुरमीत सिंह  ...मीत तखल्लुस से लिखने वाले  गुरमीत पुरानी बस टिकट , कॉफ़ी  का बिल , चॉकलेट  के रैपर मे , पुराने खतो  मे सम्भाले है  यादो  को , बेजार होकर कह्ते है  ...कागज़ के टुकडो के दिल नही होते या फ़िर कही ये यादे , वो प्रेम ही तो सिर्फ़ कागज़ी नही था .    
ठहरी  सी जिन्दगी में थोड़ी हलचल मच जाए , थोडा नादानी से जी ले चलो कुछ तूफ़ानी   करते है . सर्दियो मे महबूब के साथ बिताये दो लम्हे " काश ऐसे बीत जाये , काश बीत गये होते " वो शाम कुछ अजीब थी " गीत की याद दिलाते है. 
इनकी कविता अजनबी मे कवि   आईना देखने से डरता है कि कही आईना उसे अजनबी ना दिखा दे . ग़ज़ल कुछ बातें में "यार मिलते हैं यारी नहीं  , दिल मिलते है  दिलदारी नही" में  रिश्तो के दोहरेपन मे खोये है !   

7. जैसबी गुरजीत सिंह  की कवितायेँ इतंजार  , प्रेम मे मै तेरे अनलिखे खत सा पढ लिय जाता हू, वो नींद  से जगाने वाला ख्वाबों मे अपनी तकदीर  बना लेता है , ख्वाब टूट जाने से पहले . 
प्रेम को मैने पाला  है एक गम छिपाकर दुनिया की नजर  से. 
प्रेम के कुछ कतरे संभाले हैं इन्होने यादों के !

8. डॉ . वन्दना सिंह  .. स्वगत-प्रलाप मे मन की तराजू  पर तुलते  हुए सोचती है  ..मौन से उबर कर निकले शब्द कही खोखले  तो नही . 
मन को मजबूत बनने की प्रेरणा देती है...सम्भल से मन !
मां   कविता हर पुत्री की उस पीडा को दर्शाती है जब वह अपनी माँ  को उस तरह नही सहेज पाती जिस तरह माँ  ने उसे  संभाला    था. 
संघर्ष  भरे जीवन मे  तूफानों   को मन मे दबाये अकेले चलने  को विवश आदमी के कम या ख़त्म होते उत्साह की व्यथा दर्शाती है . वन्दना जी की एक गज़ल "ख्वाब " संकलन मे  सम्मिलित की गयी है ,  एहतियातन  कर लिया  उससे  किनारा मैने . 

9. नीलिमा शर्मा --. इनकी कविता नई नवेली नई दुल्हन के उल्लासित मगर घबराये मन की भावना को प्रकट  करती  है जो अजनबी -से नए संसार में अपने प्रिय की बाट जोहता  है . 
संबोंधन में कशमकश है प्रेमी- प्रेमिका या पति -पत्नी के बीच , वे एक दूसरे को क्या कह कर पुकारें . आप तुम या तू .  तय यह ही होता है कि किसी संबोधन को त्याग कर दोनों एक दूसरे को नाम से ही पुकारें ताकि दोनों की नजरों में एक दूजे में समाने पर भी पृथक अस्तित्व का भान बना रहे , कुछ छूट जाने का भय ना रहे. 
जीवन की आपाधापी में यथार्थ और पलायन एक साथ चलते हैं .
ये हमारी जिंदगी एक दूसरे से ही है .
कविता के जन्म की कविता बन जाने  से पूर्व शब्दों की गुथमगुत्थी में कविता के जन्म होने से  पूर्व की प्रसव पीड़ा का संकेत देती है . 
लोंग कहते हैं ...प्रियतम की छवि से मुग्ध   है कि प्रातः प्रभु के दर्शन क्यों करू जब मेरे सम्मुख कोई कृष्ण -सा है!

10नीलम पुरी -- प्रेम का होना , छूट जाना , आस बन्धना, टूट जाना दो प्रेमियो के बीच  नितान्त व्यक्तिगत मामला है .वे प्रेम को  दूसरों के समक्ष निरीह नहीं दिखाना चाहती   ... किसी से भी ना कहना ,कह्ती है वे " मुझसे मत कहना"  मे .  
कोई   बेवफ़ा यू ही  नही होता साबित  करती   है  कविता " बेवफ़ा हू तो क्या , वादाखिलाफ़ी की मैने तुम्हारे लिये मे बेवफ़ा होने का इल्ज़ाम सिर पर लेते हुए .
रूठी   -रूठी प्रियतमा से मनुहार है कविता मे , मै  रूठ  जाउ तुम मनाती रहो .
इनकी  भी   एक गज़ल " ख्वाब " शमिल है ..ख्वाब आये तो नींद आ जाये !


11. पल्लवी सक्सेना -- अपनी कविता जीवन रूपी अग्नि में प्रश्न करती है कि कच्ची मिट्टी के घड़े और सुराही शीतल जल के लिए  एक ही आंच पर पकते हैं  तो जीवित रहने की जद्दोजहद में  स्त्री और पुरुष के लिए समाज के मापदंड भिन्न क्यों है . जीवन  नारी के लिए अग्निपरीक्षा- सा  क्यों है ?
यादों में भीगा मन कविता  मन समंदर के किनारे स्मृतियों की लहरें कभी मीठी कभी खरी , तृप्ति  की परिभाषा लिखती हैं .
सागर एक रूप अनेक में अलसुबह से देर रात तक सागर अपने कई रंग बदलता है .  उसके बदलते रूप के लावण्य से मोहित लोंग रात के सन्नाटे में समंदर की चीख ,लहरों के आर्तनाद को महसूस नहीं कर पाते . प्रेम हँस कर बांटा  है , मगर ग़म अकेले ही पिया सागर ने !




12. बोधमिता -- इस संकलन में सम्मिलित इनकी कवितायेँ रिश्तों को परिभाषित करती है , कही वे माँ है , कही बेटी भी .  इनकी रचनाओं में सृजनकर्ता माँ  सृजन की प्रक्रिया में  फूल   और काँटों को अलग करती स्वयं लहूलुहान होती है , मगर होठों पर फिर भी मुस्कान सजी है. 
माँ  से बोली बेटी  में बेटी माँ से अपने अस्तित्व के पूर्ण विकास के लिए गहरे समन्दर में  उतरने  की अनुमति चाहती है , भीतर कही भयभीत है कि माँ का  वात्सल्य- प्रेम कही बरगद की वह घनी छाँव ना हो जाय जिसके नीचे कोई दूसरा पौधा पनप नहीं सकता . 
माँ -बेटे  में बेटे के जाने के बाद उसे याद करती माँ है  तो बिटिया में   बिटिया को उन्मुक्त परवाज़ देना चाहने वाली माँ भी है .
कविता युवा वास्तविक जीवन के रिश्तों को उपेक्षित कर अंतरजाल की आभासी दुनिया में उलझे युवा वर्ग पर दृष्टि रखती है तो दर्द में ब्याहता अपने पति को साथी के रूप में देखना चाहती है , अभिभावक  के रूप में नहीं !


*किताब फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है और लेने वाले इस लिंक पर जा सकते हैं-  
kasturi-9381394148/p/

itmdbv8djgruzz9c?pid=
9789381394144&ref=15ac47da-2127-4299-b642-b9754a0805ae




सोमवार, 6 अगस्त 2012

झील होना भी एक त्रासदी है!






 



कुछ घंटों की अजमेर यात्रा में कुछ देर  आना सागार झील  के किनारे भी खड़े रहने का मौका मिला  . उमस भरी गर्मी में प्राकृतिक दृश्यों के  साथ   झील से होकर आती ठंडी बयार का लुत्फ़ लेना प्रारंभ ही किया था कि बदबू का तेज झोंका नाक को छू गया . पास खड़े एक स्थानीय  नागरिक ने बताया कि पूरे शहर की नालियों का गन्दा पानी इसी झील में आकर मिलता है , तो यह दुर्दशा होनी स्वाभाविक है  . झील के किनारे सुन्दर बाग़ में  पशुओं की सुन्दर आकृतियाँ , मीरा की मूर्ति लगा कर इसे खूबसूरत बनाने का प्रयास किया गया है  परंतु झील के अस्तित्व के लिए  आवश्यक  जल की शुद्धता और स्वच्छता   पर ध्यान दिया जाना था. उसकी ही कोई परवाह नहीं ...नीचे झाँक कर देखा झील का पानी काई के कारण हरियाया था और मनो कूड़ा करकट झील के किनारे पड़ा था.  प्लास्टिक की  बोतलें , जूते -चप्पल , कपड़े और ना जाने क्या -क्या  . दूषित जल झील में नहीं आये यह प्रशासन की जिम्मेदारी है  किंतु किनारे पड़ा कूड़ा करकट पर्यटकों की मेहरबानी है . झील की बेबसी पर दुःख भी हुआ . वह स्वयं तो अपने किनारे पड़े कचरे को साफ़ नहीं कर सकती  ना ही दूषित जल के बहाव को रोक सकती है . नदी होती तो और बात थी , सब कूड़ा करकट समेट ले जाती ...दूषित मानसिकता /आरोपों/ आक्षेपों को झेलते   स्त्रियाँ भी ऐसी झील हो जाती है .  स्त्रियों को नदी ही होना चाहिए , झील नहीं . झील होना भी एक त्रासदी है !  झील के किनारे खड़े "झील से प्यार करते हुए " शरद कोकास और उनके प्रशंसक भी स्मृति में रहे )

झील होना भी एक त्रासदी है!

भूगर्भ में हुई आग्नेय हलचलें 
कभी जन्म देती हैं झीलों को  
कभी नष्ट भी कर देती हैं  
निर्माण और अवसान के मध्य        
शांत गहरे नीले पारदर्शी  जल के किनारे
मुग्ध ठगे दृग  
झीलों के निष्कलंक सौन्दर्य से !!

आप्लावित कुंठित निर्मित दीवारों ने 
निर्मल जल को घेर कर   
निर्मित कर ली कृत्रिम झीलें 
तब भी वे उतनी ही शांत पारदर्शी थी ...









 उछाले कंकड़ बनाते थे जितनी शीघ्रता से भंवर
 अंक में भर कर त्वरित गति से                                
वैसे ही बिसरा देती थी  निर्मल झीलें  !
मगर कूड़ा जो अब किनारे पर 
अटका पड़ा है काई बनकर 
झील  का गहरा नीला रंग 
हल्का होता रह गया  है हरा ...
हवा के झोंके के साथ बतकही करते       
किनारे खड़े मुसाफिर की बढ़ी हुई नाक में 
गंधाती है झीलें  !

अपनी बढ़ी हुई नाक लेकर 
मुंह फेरने से गंध पीछा नहीं छोड़ती 
कि गंधाने में कुसूर झील का नहीं नाक का है 
जो बढ़ते हुए झील के किनारे तक जा पहुंची!
 झील स्वयं चल कर नहीं आती नाक तक .

झीलों के हाथ नहीं है कि बढ़ कर नाक ही दबा दे 
गंधाने की बतकही  ख़तम कर दे सिरे से ही !
झील के शांत निर्मल नीले जल के लिए 
किनारे खड़े मुसाफिर अपने हाथों को बढ़ाये 
और बीन लाये वह कूड़ा 
जो फेंका है हममें से ही 
किसी किनारे खड़े मुसाफिर ने  !


मंगलवार, 17 जुलाई 2012

अधमुंदी पलकों में मुट्ठी भर ख्वाब ज़रूरी है ....



सागर की वंशज की आँखों में ख्वाब 
भागीरथ की गंगा बन धरती पर आया 
पंछियों से उड़ने का ख्वाब 
राईट बंधुओं की हकीकत बन आया 
चाँद को पा लेने का ख्वाब पला कितनी आँखों में 
मानव चाँद पर भी हो आया 
इन बड़े- बड़े ख़्वाबों के बीच 
छोटे ख्वाब भी होते हैं 
जो किसी गरीब की आँखों में पलते हैं 
दिन भर की मशक्कत के बाद भी 
भूख से कुलबुलाती अंतड़ियों में 
अन्न का एक दाना नहीं तो 
पत्थरों की खुरदरी जमीन पर 
ख्यालों की मसनदें सुनाती है लोरियां 
स्व को बचाए उस आने वाले कल तक 
खुद को जिन्दा रखने के लिए 
सूखी आँखों में ख्वाब ज़रूरी है .... 
उजड़ा चमन , बिखरे पत्ते 
स्याह बियाबान में 
सर्द हवाओं से कंपकंपाते 
अधढके बेजान होते शरीरों में 
कल सुबह सूरज की तपिश का 
ख्वाब ज़रूरी है ...
कडकडाती बिजलियों सी मुश्किलें 
तूफ़ान सी मुसीबते राह राह रोके खड़ी हों 
टूट कर ना बिखर जाएँ शख्सियतें 
ईश्वर के दिए इस जीवन का मान रखते 
चट्टान से अडिग विश्वास के साथ 
अधमुंदी पलकों में 
मुट्ठी भर ख्वाब ज़रूरी है ....

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

प्रेम किस विषय में पढाया जाता ...


राजनीति की चौसर पर बिछती हैं बिसातें 
नैतिकशास्त्र  की बलिवेदी पर 
गृहविज्ञान का समीकरण गड़बड़ाता है 
रिश्तों  का रसायन 
नफा नुकसान के 
गणित में उलझ कर 
स्वार्थपरकता के 
अर्थशास्त्र से परिभाषित हो 
समाजशास्त्र के निर्देशों पर  
देह के भूगोल तक सिमटता है 
तब 
भौतिकी के माप पर खौल कर 
परिमाण और मात्रा में शून्य हो जाता है !
और 
प्रेम इतिहास हो जाता है !
क्योंकि 
प्रेम किसी यूनिवर्सिटी  में नहीं पढाया जा सकता !!
प्रेम मिश्रित अलंकार  अथवा छंदों में 
हिंदी , अंग्रेजी या अन्य किसी भाषा में पूर्णतः व्यक्त नहीं होता .
प्रेम एक अनुभूति है 
जो   बुद्धि   से टकराकर 
हृदय की मौन वाणी में 
एक ह्रदय से दूसरे ह्रदय के बीच संचारित 
महज़ हृदय से ही  संपूर्णतः अभिव्यक्त होती है !



नोट --
कविता का शीर्षक जम नहीं रहा ...कोई सुझाव ??




गुरुवार, 21 जून 2012

मौसम मन के ही है सारे .....



मन के मौसम ख़्वाबों की मखमली जमीन पर पलते हैं  ....ख़्वाबों में पलते  अहसास ही बदलते हैं मौसम को--- पतझड़ से बहार में ,  जेठ की दुपहरी को सावन में ! 


खुशनुमा यादों का मौसम!

ग्रीष्म  की  तपती दुपहरी  में  
उलट पुलट गये सारे मौसम  .
झरने की रिमझिम फुहार जैसा
हौले से छुआ यूँ उसके एहसास ने  
मन हिंडोले झूल रहा 
शीतल बयार मदमस्त बहकी 
सावन द्वार पर आ ठिठका 
वसंत ने कूंडी खटखटायी 
गुलज़ार हुआ  मन का हर कोना 
अगर-कपूर - चन्दन खुशबू 
दिवस हुए  मधुरिम चांदनी  जैसे 
रुत और कोई इतनी सुहानी नहीं 
जितना है 
खुशनुमा यादों का मौसम!

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जिया जब झूमे सावन  है ....

सूखी ताल तलाई से 
मेघों को तकते सूखे नयन
सायं सी  चलती पवन
रेत के बन गए जैसे महल  
भरभरा कर गिर ही जाते ...
तभी  पवन चुरा लाई 
आसमान में अटका 
रूई  के फाये सा 
बादल का एक टुकड़ा 
रंगहीन अम्बर भरा  रंगों से 
सफ़ेद ,काला , नीला ,आसमानी  
गर्म तवे पर छीटों सी 
पहली बारिश की कुछ बूँदें 
रेत पर जैसे  कलाकृति 
भाप बन कर उड़ जाती 
सौंधी खुशबू मिट्टी से 
नृत्य कर उठा  मन मयूर ...
रुत खिजां  की यूँ बदलती बहार  में ...

कुछ यूँ ही  
रिश्तों की जब नमी सूखती 
मन हो जाता है  मरुस्थल 
दूर तक फ़ैली तन्हाई 
ग्रीष्म के तप्त थपेड़े सा सूनापन  
टूटती शाखाओं से झडते पत्ते 
जीवन जैसे ठूंठ  हो रहा वृक्ष 
बदले मन का मौसम पल में 
 जीवन में थम  जाता  पतझड़ ...

चुपचाप मगर नयन बरसाते 
पहली बारिश का जैसे जल 
मन के रेगिस्तान में 
स्मृतियों की धूल पर 
खुशबू यादों की सौंधी मिट्टी -सी 
ह्रदय  के   कोटरों में 
नन्हे पौधों से उग आते 
स्मृतियों के पुष्प 
मन मयूर के नर्तन से 
बदल जाती  रुत क्षण में 
भीगा तन -मन 
ग्रीष्म  हुआ जैसे सावन में ...

कह गया चुपके से 
कौन कानों में 
मौसम मन के  ही है सारे 
जिया जब झूमे सावन  है ....

चित्र गूगल से साभार !

शनिवार, 16 जून 2012

बहुत आती है घर में कदम रखते ही पिता की याद.....




बहुत आती है 
घर में कदम रखते ही
पिता की याद
पिता के जाने के बाद...

ड्राइंगरूम की दीवारों पर 
रह गए हैं निशान
वहां थी कोई तस्वीर उनकी या
जैसे की वो थे स्वयं ही
बड़ी बड़ी काली आँखों से मुस्कुराते
सर पर हाथ फेर रहे हो जैसे
जो  उन्होंने कभी नही किया
जब वो तस्वीर नहीं थे 
स्वयं ही थे....


कभी कभी उतर आते हैं
मकडी के जाले उन पर
कभी कभी धूल भी जमा हो जाती है
नजर ठहर जाती है उनकी तस्वीर पर
क्यों लगता है मुझे
कम होती जाती  है उनकी मुस्कराहट
स्मृतियों से झाँक लेते हैं  वे पल 
जब वो तस्वीर नही थे
स्वयं ही थे.....

बिखरे तिनकों के बीच देखा एक दिन 
एक चिडिया तस्वीर के पीछे
अपना घर बनाते हुए...
सोचा मन ने कई बार 
काश मैं भी एक चिडिया ही होती
दुबककर बैठ जाती उसी कोने में
महसूस करती उन हथेलिओं की आशीष को...

और एक दिन घर में कदम रखते ही
बहुत आयी पिता की याद
तस्वीर थी नदारद
रह गया था एक खाली निशान
कैसा कैसा हो आया मन ...
आंसू भर आए आँखों में
पर पलकों पर नहीं उतारा मैंने
उनका कोई निशान
चिडिया करती थी बहुत परेशान
फट गया था तस्वीर के पीछे का कागज भी
सबकी अपनी अपनी दलीलें
लगा दी गयी गहरे रंगों से सजी पेंटिंग कोई
किसीको नजर आती उसमे चिडिया
किसीको नजर आता उसमें घोंसला
 घोंसले में दुबके हुए 
चिड़िया के बच्चों की गिनती के बीच  
 मुझे तो नजर आता था
तस्वीर के पीछे का बस वही खाली निशान....

कई दिन गुजर गए यूं ही
देखते हुए खाली निशान
अब भी बहुत आती थी
घर में कदम रखते ही
पिता की याद....

चिड़िया की बहुरंगी पेंटिंग के स्थान पर 
एक दिन फिर से सज गयी 
नए फ्रेम में तस्वीर पिता की 
भर गया है फिर से खाली निशान....
मगर अब भी घर में कदम रखते ही 
बहुत आती है पिता की याद 
और  याद आता है
तस्वीर के पीछे का वही खाली निशान
रह गया  है जिन्दगी में जो खाली स्थान
पिता के जाने के बाद...