शब्द हो गए हैं इन दिनों सर चढ़े
करके मेरी पुकार अनसुनी
बैठ जाते है अलाव तापने
कभी दुबके रजाई में
मोज़े मफलर शॉल लपेटे
खदबदाती राबड़ी में जा छिपते हैं
करते आँख मिचौली
ऐसे नहीं सुनने वाले है ये ढीठ शब्द
कभी बैठते हैं छत से जा चिपके
यहाँ- वहां से इकठ्ठा करूँ
बैठा दूं करीने से
पुचकारू प्यार से
हौले से थपकी दे संभालूं
या कान उमेठ समझा दूं
सर्दी के छोटे दिनों में
टुकड़े -टुकड़े दिन सँभालते
एक पूरा दिन इतना तो मिले !!